इलेक्टोरल बॉन्ड से पार्टियों का चंदा 10 गुना बढ़ा: सीक्रेट रूट से कॉरपोरेट फंडिंग, 77% चंदा इसी से मिल रहा

नई दिल्ली4 मिनट पहले

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सियासी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड का सीक्रेट रूट कॉरपोरेट्स को भा रहा है। इसके दो कारण हैं, पहला-बॉन्ड में दानदाता की पहचान गुप्त रहती है दूसरा- चंदे की रकम की कोई सीमा नहीं है।

2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद से राजनीतिक पार्टियों को चंदे की लगभग 77% रकम इसी से मिल रही है। चेक और डोनेशन के अन्य ओपन माध्यमों से चंदा लगातार कम हो रहा है।

स्कीम लागू करने के बाद 2018-19 में 20 हजार से अधिक के 3491 करोड़ रुपए के चंदे में से 2539 करोड़ (73%) बॉन्ड से मिले। चुनावी साल 2019-20 में 77% और 2021-22 में 2665 करोड़ (77%) इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीतिक पार्टियों को हासिल हुए।

दिल्ली-मुंबई सहित पांच शहरों से ज्यादा चंदा
राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव आयोग को सौपी गई ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार अज्ञात कंपनियों द्वारा पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए एक करोड़ रुपए का चंदा देने के मामले ज्यादा आए हैं। पांच बड़े शहरों मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई और नई दिल्ली से बॉन्ड के द्वारा सबसे अधिक चंदा दिया जा रहा है।

चुनाव आयोग के अनुसार 2013-14 में वार्षिक औसत कॉरपोरेट चंदा 224 करोड़ रुपए था जो पिछले पांच साल में लगभग दस गुना बढ़कर 2,171 करोड़ रुपए हो गया। जबकि 2004 से 2012 तक कॉरपोरेट चंदे का वार्षिक औसत 47 करोड़ रुपए ही था।

इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले देश में राजनीतिक चंदा कैसे दिया जाता था?
पहले कॉरपोरेट्स से राजनीतिक पार्टियों को चेक से दिया जाने वाला चंदा उनके वार्षिक अकाउंट में लिस्टेड होता था। पार्टियां चुनाव आयोग को डोनर का नाम और प्राप्त राशि बताती थी। ऐसे में कॉरपोरेट आमतौर पर चेक से बड़ी रकम का चंदा देने से परहेज करते थे। पहले बड़े कॉरपोरेट प्रमुख पार्टियों को लगभग बराबर ही चंदा देते थे।

इलेक्टोरल बॉन्ड क्या होता है, और ये चंदे के रूप में कैसे काम करता है?
बॉन्ड दरअसल एक प्रॉमिसरी नोट (वचन-पत्र) यानी करंसी नोट के समान होता है। एसबीआई इसे खरीदार को देता है। इस बॉन्ड पर खरीदार का नाम नहीं होता है। खरीदार इसे सियासी पार्टी को देता है। पार्टी बॉन्ड को अपने एसबीआई के अकाउंट में जमा करती है। ये बॉन्ड उसी दिन क्रेडिट हो जाता है।

बॉन्ड के बाद क्या बदलाव हुआ?
बॉन्ड अब चलन में है। क्योंकि डोनर की पहचान केवल SBI और राजनीतिक पार्टी ही जानती है। सियासी दलों पर बॉन्ड से प्राप्त कुल रकम को चुनाव आयोग को बताने की बाध्यता है लेकिन डोनर का नाम बताने की नहीं है। कुछ कंपनियां अब भी चेक या डिजिटल ट्रांसफर करती हैं, लेकिन बॉन्ड की तुलना में ये राशि कम होती है।

इलेक्टोरल ट्रस्ट भी जरिया, क्योंकि इसमें भी कॉरपोरेट की पहचान उजागर नहीं होती
इलेक्टोरल बॉन्ड के साथ-साथ सियासी चंदा देने का एक और इनडायरेक्ट रूट इलेक्टोरल ट्रस्ट है। इसका भी इस्तेमाल कॉरपोरेट करते हैं। बड़े कॉरपोरेट ट्रस्ट बनाकर अन्य कॉरपोरेट से डोनेशन लेते हैं और फिर राजनीतिक पार्टियों को देते हैं। ये चंदा कॉरपोरेट डोनेशन के रूप में दर्ज होता है। ट्रस्ट एक सोसायटी के रूप में दलों काे चंदा देते हैं, इसलिए किसी भी कॉरपोरेट की पहचान उजागर नहीं होती है।

चुनाव आयोग के अनुसार 2021-22 में ट्रस्ट के जरिए 78% कॉरपोरेट डोनेशन सियासी पार्टियों को मिला। 2017-18 से 2021-22 के दौरान औसत ट्रस्ट से 50% कॉरपोरेट डोनेशन दिया गया। आसान शब्दों में प्रत्येक 100 रुपए के कॉरपोरेट डोनेशन में से 66 रुपए इलेक्टोरल बॉन्ड और 17 रुपए इलेक्टोरल ट्रस्ट से दिए गए।

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