करनाल का गांव, जहां हर तीसरे घर में फौजी: यहां के फौजियों ने 2 विश्वयुद्ध लड़े; पैर में गोली, फिर भी ग्रेनेड फेंकते रहे सूबेदार मालदेव

रिंकू नरवाल, करनाल3 घंटे पहले

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हरियाणा के करनाल का गांव अराईपुरा आजादी की जंग में दिए योगदान को लेकर खास जगह रखता है। यहां के फौजियों ने पहला और दूसरा विश्वयुद्ध लड़ा। जिसमें 10 जवान शहीद हुए। आज भी इस गांव में देश सेवा का ऐसा जज्बा है कि हर तीसरे घर का बेटा सरहद पर दुश्मनों के आगे सीना ताने खड़ा है।

चीन और पाकिस्तान से हुई लड़ाई में भी यहां के जवान जंग के मैदान में डटे रहे। गांव में बना शहीद स्मारक आज भी इन फौजियों के जज्बे की यादें ताजा कर देता है। दूसरे विश्व युद्ध में सूबेदार मालदेव तो पैर में गोली लगे होने के बाद भी दुश्मनों पर ग्रेनेड फेंक बंकर तबाह करते रहे।

पहले विश्व युद्ध में महात्मा गांधी के कहने पर लड़े
इतिहासकारों के मुताबिक, 1914 से 11 नवंबर, 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध के वक्त अंग्रेजी हुकूमत ने महात्मा गांधी से संपर्क किया। उन्हें भरोसा दिया कि अगर भारत इस लड़ाई में ब्रिटेन की मदद करता है तो भारत को आजादी दे दी जाएगी।

महात्मा गांधी ने भारतीयों से आह्वान किया कि ज्यादा से ज्यादा जवान ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से जंग में हिस्सा लें। इसके बाद तब के संयुक्त पंजाब और अब हरियाणा के करनाल जिले के गांव अराईपुरा के 32 युवा ब्रिटिश सरकार की मदद के लिए गए। इसमें 3 सिपाही दान सिंह, बलजीत सिंह और बनवारी सिंह शहीद हो गए।

बहादुरी देख हैरान हुए अंग्रेज, 5200 बीघा जमीन देने की घोषणा की
प्रथम विश्व युद्ध हिस्सा लेने वालों में जीवित रहे सूबेदार सुनहरा सिंह को ‘सरदार बहादुर ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया मेडल’ मिला। सूबेदार सुनहरा सिंह के पुत्र बलबीर सिंह भी सेना में सूबेदार रहे। रिटायर्ड सूबेदार बलबीर सिंह बताते है कि अंग्रेजों ने तब गांव के सैनिकों की बहादुरी से प्रभावित होकर एक बावनी (5200 बीघा) जमीन देने की घोषणा की थी। मगर, यहां के लोगों ने जमीन के बजाय शहीद स्मारक बनवाने की मांग की। अंग्रेजों ने गांव के लोगों की इस मांग को मान लिया। तब गांव में शहीद स्मारक बनाया गया।

शहीद स्मारक के पास मौजूद ग्रामीण शहीदों के बारे में जानकारी देते हुए।

शहीद स्मारक के पास मौजूद ग्रामीण शहीदों के बारे में जानकारी देते हुए।

दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजों ने मांगी मदद, 7 जवान शहीद हुए
इसके बाद 1939 से 1945 तक दूसरा विश्व युद्ध हुआ। तब पहले विश्वयुद्ध में बहादुरी देख अंग्रेजी हुकूमत ने फिर गांव से संपर्क किया। जिसके बाद यहां के 40 युवा ब्रिटिश सरकार का साथ देने गए। इनमें 7 जवान शहीद हो गए थे। जिनमें हवलदार बारू सिंह, सिपाही अबल सिंह, जय सिंह, वजीर सिंह, छजु सिंह, बल्ला सिंह और धूमन सिंह शामिल हैं।

सूबेदार मालदेव, जिन्हें देख अंग्रेज कमांडर बोला- 1 सैनिक दुश्मनों से लड़ रहा
दूसरे विश्व युद्ध में अराईपुरा के सूबेदार मालदेव सिंह ने ऐसी बहादुरी दिखाई कि अंग्रेज भी हैरान रह गए। युद्ध के वक्त उनके पैर पर गोली लग गई। तब उनके पास 2 हैंड ग्रेनेड थे। तब उन्होंने तुरंत प्लानिंग बनाई कि दुश्मनों का बंकर भी तबाह करना है और उनके सैनिकों को भी मारना है।

उन्होंने एक ग्रेनेड बंकर पर पर फेंका। धमाके में काफी सैनिक मारे गए। मगर, कुछ बचकर भागने लगे। इस कंपनी का कमांडर पूरी घटना देख रहा था, उसने वायरलेस से अधिकारियों को सूचना दी। उसने बताया कि यहां तो सिर्फ एक ही सैनिक दुश्मनों से लड़ रहा है।

इसलिए दूसरी टुकड़ी भेजी जाए। इस युद्ध में वीरता दिखाने के लिए सूबेदार मालदेव सिंह को मिलिट्री क्रॉस मेडल (आज का महावीर चक्र) मिला था।

सूबेदार मालदेव सिंह को मिला मिलिट्री क्रॉस मेडल।

सूबेदार मालदेव सिंह को मिला मिलिट्री क्रॉस मेडल।

मालदेव के पुत्र बोले- पिता के अलावा चाचा-ताऊ भी सेना में गए
सूबेदार के मालदेव सिंह के पुत्र लक्ष्मण सिंह राणा भी मिलिट्री में अपनी सेवाएं दे चुके है। 10 साल सेवा के बाद रिटायर हो गए। इसके बाद उन्होंने हरियाणा रोडवेज डिपार्टमेंट नौकरी की। लक्ष्मण सिंह बताते हैं-”पिता मालदेव सिंह अपनी जांबाजी के किस्से सुनाकर हमें प्रेरित करते थे।

दूसरे विश्व युद्ध में जापान के खिलाफ लड़ाई चल रही थी। वे हवलदार थे। सेना में एक नियम था कि अगर एक ही परिवार से तीन युवा फौज में शामिल होंगे तो उसके एक व्यक्ति को एक रैंक ज्यादा दिया जाएगा।

मेरे चाचा वजीर सिंह, ताऊ अबल सिंह व पिता मालदेव सिंह सेना में शामिल हुए। सेना के अधिकारियों को जानकारी दी तो उनके पिता को सूबेदार बना दिया गया। अधिकारियों ने 11 सैनिकों की कंपनी के साथ उनके पिता को दुश्मन का सामना करने के लिए भेज दिया।”

आज भी बहादुरी और शहादत में पीछे नहीं गांव
1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भी गांव के सैनिकों ने बहादुरी से युद्ध में भाग लिया था। इसी लड़ाई में नायब सूबेदार सुगन सिंह को सेना मेडल से सम्मानित किया गया था। 1965 के भारत-पाक युद्ध मे गांव के अनेक सैनिकों ने भाग लिया।

तब भी गांव के दो सैनिक सिपाही तेग सिंह व सिपाही ज्ञान सिंह शहीद हो गए थे। 1971 की भारत -पाक लड़ाई में भी यहां के युवाओं ने सेना में रहते हुए लड़ाई में भाग लिया था। ग्राम निवासी कैप्टन सुखबीर सिंह ने बांग्लादेश के अंदर एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था।

इसके अतिरिक्त एयरफोर्स में स्क्वाड्रन लीडर दुष्यंत सिंह सहयोगी पायलट को ट्रेनिंग देते समय शहीद हो गए थे। कारगिल युद्ध हो या श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ युद्ध या संयुक्त राष्ट्र संघ के अभियान, इस गांव के सैनिक बहादुरी से अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहे हैं।

वर्तमान में भी गांव से 150 से ज्यादा सेवारत और सेवानिवृत्त फौजी मातृभूमि की सेवा में लगे हुए हैं। आजाद हिंद फौज में भी हवलदार निरंजन सिंह व हवलदार रिसाल सिंह सैनिकों ने भाग लिया था।

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