भास्कर ओपिनियन- चुनाव: पांच राज्यों में बज चुकी चुनावी रणभेरी : सुनो- सुनो, चुनो- चुनो…

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36 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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कितना अजीब होता है! अपने ही सिरहाने बैठकर, अपने को ही गहरी नींद में सोते देखना! हमारे ज़ख़्मी पैरों को एक लम्बा रास्ता निगल रहा है। हमारी आँखें किसी नाव की तरह! अंधकार के एक महासागर को पार कर रही हैं! रास्ते में जो भाटे हैं, पत्थर पड़े हैं, वे हमारी ही चकनाचूर शक्लों के टुकड़े हैं! हमारा मुँह, एक बंद तहख़ाना! शब्दों का एक गुम ख़ज़ाना! क्या हम अपना मुँह खोल पा रहे हैं? क्या हम कुछ बोल पा रहे हैं? कदाचित नहीं! ठीक है, अब तक मुँह नहीं खोला, कुछ नहीं बोला! अब तो बोलो! लोहारों की भट्टी भड़क उठी है। कुम्हारों का ‘आवा’ दहकने लगा है। मुनादी दनादन बज उठी है। नगाड़ों पर ऐलान हो चुका है। रुकेगी नहीं! अब रुकेगी नहीं ये आव- भगत की अजीब चुनावी लड़ाई!

जो तेज कर रहे थे अपने खन्जर, वे अब सजदे में बिछ जाने को तैयार हैं। जो कसते फिरते थे कमर और मयान, वे अब कहने लगे हैं खुद को जनता का ग़ुलाम! देखिए जो भेड़ियों की तरह गुर्राया करते थे, उनके भीतर से अब चींटियों के दल निकलने लगे हैं! आप भी उठिए! अब तो उठिए। उनके गले मिलिए और कहिए- पिछले पाँच साल तक जिस तरह हमें छकाया, रुलाया, अब भी वैसा ही किया तो यही गला हम दबा भी सकते हैं। हम बेख़ौफ़ हैं।

जनता हैं। जनार्दन भी। हमसे डरो न सही, सहमो तो सही!

बात चुनाव की ही है। चुनावी मौसम की। चुनाव की घोषणा होते ही शुरू हो गया है टिकटों का रोना- धोना। कई पा गए। कई खो गए। इस पाए, खोए के बीच जो कभी गिनती में भी नहीं आते थे, वे भी वैतरणी में उतर चुके हैं। पार पाने की फ़िराक़ में।

प्रमुख तीन राज्यों – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की बात करें तो यहाँ मुख्य रूप से दो ही पार्टियाँ मैदान में हैं। कांग्रेस और भाजपा। भाजपा को हमेशा की तरह या तो हिंदुत्व पर भरोसा है या अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर। यही वजह है कि उसने तीन में से एक भी राज्य में मुख्यमंत्री का चेहरा साफ़ तौर पर घोषित नहीं किया है। भाजपा को लगता है कि हिंदुत्व और मोदी की आंधी में क्षेत्रीय मुद्दे तिनकों की तरह उड़ जाएँगे। इसके पहले भी ऐसा होता रहा है। अब भी ऐसा ही होगा।

दूसरी तरफ़ कांग्रेस इन दिनों एक नया मुद्दा लाई है। ओबीसी का। उसे लगता है अन्य पिछड़े वर्ग का यह मुद्दा भाजपा के हिंदुत्व पर भारी पड़ेगा। चुनाव की तारीख़ें देखी जाएँ तो ओबीसी का मुद्दा लाने में कांग्रेस कुछ ज़्यादा ही लेट हो गई है। हो सकता है कांग्रेस को इस मुद्दे पर ज्यादा ही भरोसा हो! होना भी चाहिए, लेकिन इतना ही भरोसा है तो टिकटों के बँटवारे में इतनी देरी क्यों?

क्या टिकटें भी इसी सूत्र के तहत बाँटने की तैयारी है कि आबादी में जिसका, जितना हिस्सा, उसका- उतना हक़। हो सकता है ऐसा ही हो। लेकिन मैदान में फ़िलहाल ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

उधर, भाजपा ने इस ओबीसी मुद्दे को सरदार पटेल की राह पर चलते हुए दबे स्वर में ही सही, देश को जात- पात में बाँटने वाला बता दिया है। साफ़ संकेत है कि भाजपा अब अपने पुराने मुद्दों पर ही टिके रहना चाहती है। वो जात- पात के दल- दल में फँसना नहीं चाहती!

जहां तक आम आदमी के मुद्दों का सवाल है, उनके बारे में तो अब कोई सोचना भी नहीं चाहता। कहने के लिए राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में ज़रूर कुछ मुद्दे दिखाई पड़ते हैं लेकिन वे दिखाई ही पड़ते हैं, उनका आख़िर में कुछ होता- जाता नहीं है। भीड़ रहती है सिर्फ़ बंदरबाँट की। मुफ़्त की रेवड़ियों से भरे रहते हैं ये घोषणा पत्र। कहीं क़र्ज़ माफ़ी, कहीं ब्याज पर छूट, कहीं किसानों की फसलों के बीमे, कहीं हर महीने मुफ़्त का पैसा। बाढ़ सी आई हुई है।

हर किसी को किसी न किसी तरह सत्ता चाहिए। गद्दी चाहिए। वो दे दीजिए फिर वादे पूरे हों, या न हों, कौन पूछने वाला है? गई बात पाँच साल पर। तब की तब देखेंगे। ज़्यादातर राजनीतिक दल इस चुनावी मौसम में इसी मूड में रहते हैं। और लोग यानी आम मतदाता, उसे किसी की परवाह नहीं! अपने वोट और उसके मूल्य की भी नहीं। कुछ लोगों के लिए तो मतदान की तारीख़ एक तरह से छुट्टी का दिन होती है। निकल जाते हैं सैर पर।

उन्हें पता है कि आज वोट नहीं डाला तो उनकी क़िस्मत भी पाँच साल के लिए एक तरह से सैर पर ही निकल जाएगी, लेकिन कोई ठहरकर सोचने को तैयार नहीं है। समझने को राज़ी नहीं है।

चुनाव आयोग की तो आजकल क्या पूछिए! छत्तीसगढ़ की वोटिंग की तारीख़ों में दस दिन का गैप दिया है! क्यों, कुछ समझ में नहीं आता! हो सकता है, वोटिंग ट्रेंड समझना होगा या सुरक्षा बलों की व्यवस्था करने में इतने दिन लगते होंगे। आयोग की बात आयोग ही जाने!

बहरहाल, इस बार वोट में सच का ही चुनाव करना चाहिए। लोग करेंगे भी। यही विश्वास है। यही अपेक्षा भी।