भास्कर ओपिनियन: राजनीतिक मसखरी और उससे जूझता आम आदमी

7 मिनट पहले

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अब तो होली भी हो ली। जो रंग चढ़े थे वे भी उतर गए। चेहरों पर से भी। … और कपड़ों का क्या? वो तो बदलते रहते हैं। जैसे हमारे नेता पार्टी बदलते हैं। या वादों को भूलते- बदलते रहते हैं। या कई बार चेहरा ही बदल लेते हैं। चेहरे से याद आया- कभी उनका चेहरा श्रंगार रस में रहता है। कभी रौद्र रूप ले लेता है।

हम आम लोगों की नज़र से देखें तो ज़्यादातर हास्य रस ही उन्हें भाता है। हम उन्हें हंसी के पात्र समझते रहते हैं और वे मानते हैं कि लोगों की यही हंसी और उनकी खुद की यही मसखरी के कारण वोट के रूप में उनकी झोली भर देंगी।

मसखरी से याद आया- बीते जमाने में राजनारायण भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मसखरे माने गए। वे एक समय चौधरी चरण सिंह को राम और खुद को उनका हनुमान बताया करते थे। चूँकि राजनीति में कुछ भी संभव हो सकता है। यक़ीन मानिए कुछ ही दिनों बाद वही राजनारायण, उन्हीं चरण सिंह को चेयर सिंह कहकर चिढ़ाने लगे थे।

राजनीतिक इतिहास में मसखरी का ये एक बड़ा उदाहरण है। अब तो उदाहरणों की ज़रूरत ही नहीं है। यहाँ- वहाँ, जहां- तहाँ, हर तरफ़ मसखरों का अम्बार है। … और मसखरी के बारे में तो पूछिए मत। कोई संविधान बदलने की बात करता है। कोई कहता है- हम बंजर ज़मीन पर फसलों का अम्बार लगा देंगे। पेड़ों पर लालटेन, डालियों पर लड्डू लटका देंगे। दूर पहाड़ों पर या आप कहो तो जहां ज़मीन और आसमान मिलते हैं, उस फलक पर भी चाँद लटका देंगे। हवाओं को गति दे देंगे।

यहाँ- वहाँ फुदकते पत्थरों को पंख भी दे सकते हैं। आप कहिए तो ज़रा! बोलिए तो सही! बस, एक आवाज़ भर कीजिए, सड़क पर यहाँ- वहाँ डोलती परछाइयों को ज़िंदगी भी दे देंगे। इन अव्यावहारिक, कठिन और असंभव से वादों को सुनकर कोई भी हंस सकता है। इसलिए आज की राजनीतिक फ़िज़ा को देखकर कहा जा सकता है कि राजनीति में मसखरे न हुए तो क्या नेता हुए?

चुनाव आते ही भूले हुए वादों की हड्डियाँ हमारी चौखट पर रख जाते हैं, जैसे पुराने वक्त में लॉजों और होटलों में मुँह अंधेरे बेचारे नौकर चाय और बिस्कुट रख ज़ाया करते थे। ख़ैर, आख़िर चुनाव आ ही गए। सिर पर। वो दल- बदल, वो पार्टियों के पक्ष में क़समें खाने या कोसने का दौर बहुत हद तक गुजर चुका है। अब तो चुनावी तवा गर्म हो रहा है। राजनीतिक लोहारों की भट्टी भड़क उठी है।

पोलिटिकल कुम्हारों का ‘आवा’ दहकने लगा है। राजनीतिक हल्क़ों में मुनादी भी बज चुकी है… आम आदमी से जितने वादे करना हो कर लीजिए। कोई चिंता नहीं। बस, वादा कीजिए। उन्हें पूरे करना, नहीं करना सबकुछ हम पर हैं। अगले पाँच साल हमारे है! निकल पड़े हैं सारे नेता- कार्यकर्ता- जैसे चींटियों के दल निकलते हैं। ये चींटियाँ, निश्चित रूप से छोटी ही सही, लेकिन इन्होंने हमारी खुरदुरी ज़िंदगी को पीस डाला है। चाट- चाट कर सबकुछ खा गईं।

आख़िर क्या किया जाए? हम आखिर उदारता के संवाहक जो हैं! अब चींटियों से बदला तो नहीं लिया जा सकता है! वे चूहों की तरह विशालकाय भी नहीं, कि रोटी लटकाकर पिंजरे में बंद कर दें और फिर दूर कहीं छोड़ आएँ, ताकि दोबारा दिखाई ही न दे।

ख़ैर, हम आम आदमी लोकतंत्र के प्रतीक हैं। सरकारों का विध्वंस और निर्माण हमारी गोद में खेलता है। निराश होने की ज़रूरत क़तई नहीं है। हम तो वे आम लोग हैं जिनकी वजह से, जिनकी मेहनत से बूढ़े बरगद में भी नई कोपलें फूटने लगती हैं।… फिर अगर बरगद को छोड़ भी दें तो पेड़ तो वो भी पल जाते हैं, जिनके बीज नहीं होतें! चाहे मिट्टी हमें अजनबी समझ ले, चाहे हवा हमारी ओर पीठ कर ले, हमारे पैरों में रस्ता और सिर पर आसमां तो है। बड़ी बर्दाश्त है हममें! बड़े बेख़ौफ़ होकर बोलते हैं। हमारे लिए ये ही बहुत है।